विमुक्त दिवस व्याख्यान वक्ता: न्यायमूर्ति अभय एस. ओक
22 सितम्बर 2024
गुड इवनिंग! सीपीए प्रोजेक्ट के संस्थापकों, वालंटियर्स, देवियों और सज्जनों. आप में से बहुत से लोग पहले से ही यह जानते होंगे कि भारत में 31 अगस्त का दिन विमुक्त और घुमंतू जनजाति (डीएनटी) समुदाय द्वारा विमुक्त जाति दिवस के रूप में मनाया जाता है. यह दिन 1924 के क्रूर आपराधिक जनजाति अधिनियम को निरस्त किए जाने का प्रतीक है जिसे 1952 के आपराधिक जनजाति अधिनियमके माध्यम से31 अगस्त, 1952 को रद्द किया गया था.
ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा लागू किया गया आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 अपनी तरह का पहला कानून था.1911 में इसका नया प्रारूप लागू किया गया था, लेकिन ये दोनों ही ब्रिटिश काल के सबसे दमनकारी कानूनों में शामिल थे. इन कानूनों ने पूरे समुदायों, मुख्य रूप सेघुमंतू जनजातियों को "अपराधी" के रूप में चिह्नित किया, जिससे अनगिनत व्यक्ति कलंक और पाबंदियों भरा जीवन जीने के लिए मजबूर हुए.
1871 के अधिनियम ने स्थानीय सरकारों को गवर्नर जनरल के समक्ष किसी जनजाति, गिरोह या लोगों के समूहको आपराधिक जनजाति घोषित करने संबंधी सिफारिश करने का अधिकार दिया. इसके आधार पर गवर्नर जनरल उन्हें आपराधिक जनजाति घोषित कर सकते थे और घोषित जनजाति से संबंधित व्यक्तियों का एक रजिस्टर तैयार किया जाता था. इसके बाद स्थानीय सरकारों को घोषित जनजाति के सदस्यों को तय क्षेत्रों तक सीमित रखने का अधिकार दिया गया, जिससे दरअसल उनकी हर प्रकार की स्वतंत्रता या गरिमा छीन ली गई. बिना मुकदमा चलाए या अपराध सिद्ध किए, व्यक्तियों को केवल समुदाय विशेष का सदस्य होने के आधार पर अपराधी करार दिया जाता था, जिससे उन्हें सम्मानजनक जीवन जीने का मौका नहीं मिलता था.
भले ही यह कानून निरस्त कर दिया गया हो, लेकिन यह बहुत निराशाजनक है कि इन समुदायों पर लगा कलंक पूरी तरह से मिटा नहीं है. आज, भारत के संविधान के लागू होने के 75 साल बाद भी, इन दमनकारी कानूनों के निशान अभी भी दिखाई दे रहे हैं. हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने आस-पास मौजूद मानसिकता की है जो खासकर पुलिस बल और बड़े पैमाने पर समाज में मौजूद है, जो पुराने पूर्वाग्रहों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. ऐसा माना जाता है कि 12 करोड़ से अधिक की आबादी विमुक्त जनजातियों से संबंधित है, जो समस्या की भयावहता को रेखांकित करता है. मैंने व्यक्तिगत रूप से डकैती जैसे अपराधों से संबंधित एफआईआर की समीक्षा की है, जिसमें आरोपी के समुदाय का उल्लेख होता है. यह उल्लेख अप्रत्यक्ष रूप से यह दर्शाता है कि आरोपी "आपराधिक" जनजाति से संबंधित हैं.
मैं क्रिमिनल जस्टिस एंड पुलिस एकाउंटेबिलिटी प्रोजेक्ट के युवाओं की सराहना करता हूं. उनका आदर्श वाक्य है, "न्याय तब शुरू होता है जब असमानता समाप्त होती है." यह बहुत ही अर्थपूर्ण है और हम सभी, जो न्याय वितरण प्रणाली में शामिल हैं, को यह सोचने के लिए मजबूर करता है कि संविधान के लागू होने के 75 साल बाद भी क्या हम वास्तव में न्याय सुनिश्चित कर पा रहे हैं. उनके प्रयास जातिवादी पुलिसिंग और हाशिए पर पड़े समुदायों के
अपराधीकरण को समाप्त करने के लिए हैं जिसका हम सभी को अवश्य ही समर्थन करना चाहिए. हालांकि 1871 और उसके बाद के कानून निरस्त कर दिए गए हैं, लेकिन पूरे समुदायों पर आपराधिक होने का जो लेबल चस्पा कर दिया गया था वह पूरी तरह से हटा नहीं है. इन विमुक्त जनजातियों के अधिकांश सदस्यों को सामाजिक और आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है, जो उन्हें न्याय पाने से रोकते हैं. अक्सर, वे केवल इस कारण अधिकारियों के हाथों चुपचाप उत्पीड़ित होते हैं क्योंकि उनके समुदायों पर बदनामी का दाग लगा हुआ है.
कुछ राज्यों के आदतन अपराधी कानून ने उनकी मुश्किलें और बढ़ा दी हैं. 1871 के कानून और इसी तरह के अन्य कानूनों द्वारा दिए ज़ख्म अभी भी भरे नहीं हैं. कुछ लोग इस राय से असहमत हो सकते हैं, लेकिन इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि अन्याय के निशान अभी भी बने हुए हैं. ये निशान इन समुदायों को अभी भी सम्मान के साथ जीने के उनके अधिकार से वंचित कर रहे हैं, जिसे भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटी किया गया है.
आपराधिक न्यायशास्त्र का एक मूल सिद्धांत बेगुनाह होने की धारणा है, जिसके तहत यह माना जाता है कि प्रत्येक आरोपी व्यक्ति तब तक बेगुनाह है जब तक कि सक्षम न्यायालय द्वारा उसे संदेह से परे दोषी न करार दिया जाए. यह परिकल्पना अनुच्छेद 21, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देता है, में निहित है. हालाँकि कुछ विशेष कानूनों के लिए यह अपवाद हो सकता है, लेकिन अधिकांश आपराधिक कानूनों के तहत बेगुनाह होने की परिकल्पनाको अभी भी सही माना जाता है.
हालांकि, समाज के हाशिए के समुदाय, विशेष रूप से कानून प्रवर्तन करने वाले जिन पर नज़र रखते हैं, को अक्सर इस परिकल्पना का लाभ नहीं मिल पाता है. उन्हें न्यायिक प्रणाली का इस्तेमाल करना और इसके जरिए अपनी मुश्किलों का हल प्राप्त करना मुश्किल लगता है. इसलिए, यह सुनिश्चित करना पहला कदम होना चाहिए कि इन हाशिए के समुदायों के लिए न्यायालयों के दरवाज़े वास्तव में खुले हों. विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 के तहत स्थापित प्राधिकरणों को इस प्रयास में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए.
हमें इन मुद्दों पर पुलिस फ़ोर्स और न्यायपालिका को भी संवेदनशील बनाने की ज़रूरत है. पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों और न्यायिक अकादमियों के जरिए हम इन समुदायों की दुर्दशा के बारे में जागरूकता बढ़ा सकते हैं एवं उनके साथ निष्पक्ष और सम्मानपूर्ण व्यवहार सुनिश्चित कर सकते हैं.
हमारी न्यायिक प्रक्रिया के आंकड़े इस दृष्टिकोण के समर्थन में पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध कराते हैं कि आपराधिक व्यवहार धर्म, जाति या समुदाय से जुड़ा नहीं होता है. मैंने वर्षों तक बड़ी संख्या में आपराधिक मामलों की सुनवाई की है और मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि आपराधिक प्रवृति का किसी व्यक्ति की पृष्ठभूमि से कोई अंतर्निहित संबंध नहीं होता है. मैं यह परिकल्पना दोहराता हूँ कि आपराधिकता या आपराधिक प्रवृत्तियों का किसी भी इंसान के धर्म, जाति या पंथ से कोई संबंध नहीं होता है. पूरे समुदाय को अपराधी करार देना न केवल असंवैधानिक है बल्कि ऐसा करना अनुच्छेद 14, 15 और 21 का भी उल्लंघन है.
दुर्भाग्य से, आज भी हाशिए के कुछ समूहों को अपराधी के रूप में बदनाम किया जाता है. इस गलत वर्गीकरण से ऐसी स्थितियाँ बनती हैं जहाँ ऐसे व्यक्ति, जो अपराधी नहीं हैं और जिनकी कोई आपराधिक मंशा नहीं है, केवल
जरूरतों के कारण अवैध कार्य करने की ओर कदम बढ़ा सकते हैं.
जब हम संविधान की 75वीं वर्षगांठ के करीब पहुँच रहे हैं, तो इस अवसर पर सभी नागरिक संविधान का पालन करने और उसके आदर्शों का सम्मान करने के अपने मौलिक कर्तव्य को निभाएँ, जैसा कि अनुच्छेद 51ए में निहित है. किसी को संविधान का सार समझने के लिए इसके सभी 395 अनुच्छेदों को पढ़ने की ज़रूरत नहीं है. प्रस्तावना ही न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल आदर्शों को अभिव्यक्त करती है.
यह सोचना उपरोक्त संवैधानिक आदर्शों के विरुद्ध है कि कोई विशेष समुदाय स्वभावत: अपराधी है. हमें ऐसी मजबूत प्रणाली स्थापित करने की ज़रूरत है जो हाशिए के समुदायों, विशेष रूप से विमुक्त जनजातियों, की गिरफ़्तारियों संबंधी आंकड़ों को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराए. इससे गैर सरकारी संगठन और कानूनी सेवा प्राधिकरण समय पर सहायता कर पाएंगे.
किसी को भी केवल अपने समुदाय से जुड़े कलंक के कारण जेल में दिन नहीं काटने चाहिए. हमारा संविधान सभी को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करता है. ब्रिटिश शासन के दौरान इन समुदायों ने जो अन्याय सहा है उन्हें हम आज आर्थिक और सामाजिक न्याय प्रदान कर ही सुधार सकते हैं. इस अवसर पर बोलने का आमंत्रण स्वीकार करने के बाद, मैंने इस पर विचार किया कि कठोर और काले कानूनों द्वारा किए गए नुकसान की भरपाई कर पाना कितना कठिन है. भले ही आपराधिक जनजाति कानून को निरस्त हुए 70 साल से अधिक हो गए हों, लेकिन इसके दुष्प्रभाव अभी भी हमें परेशान करते हैं. भविष्य में हो सकने वाले अन्याय से सुरक्षा प्रदान करने के लिए हमें यह सबक याद रखना चाहिए.
अंत में, मैं क्रिमिनल जस्टिस एंड पुलिस एकाउंटेबिलिटी प्रोजेक्ट के प्रयासों की एक बार फिर सराहना करता हूँ. ये युवा डॉ. बी.आर. अंबेडकर के सपनों के भारत निर्माण की दृष्टि को सामने रख कर काम कर रहे हैं. जैसा कि डॉ. अंबेडकर ने कहा था, हमारा संघर्ष केवल स्वतंत्रता हासिल करने के लिए नहीं है, बल्कि फिर से मानवीय गरिमा हासिल करने के लिए भी है.
मुझे आज बोलने का यह अवसर देने के लिए मैं आप सबका आभारी हूँ. मुझे उम्मीद है कि प्रोजेक्ट अपना महत्वपूर्ण कार्य जारी रखेगा. मैं आप सभी के बहुत सफल होने की कामना करता हूँ.